Monday, August 19, 2013

मछवारोंका गांव
















ओ शहरी अंकिल किस शहर से तुम आए हो,
पेन और चाक्लेटके साथ  कितने किस्से लाए हो?
यहाँ कढ्वी है धुप, पर मिले शकुनकी छाँव है, 
रेतमे लेटो, समन्दरको देखो, ये मछवारोंका गांव है। 

डुबकी लगाके सागरमे, नापो खुदकी गहराइको, 
सोचो न जियादा, फिक्र भुलाके, नाँच बनालो अंगडाइको। 
पीछे डुबे सुरज पानीमे, आगे लहराता नांव है, 
यहाँ सब निर्मल, यहाँ सब चंगा, ये मछवारोंका गांव है।

बलखाती लहरोंका क्या मस्त अदा, रंगीन बनाए किरणको, 
जैसे जंगलमे मन मोहनेवाली सुनहरी कोइ हिरण हो। 
यहाँ सब रंगीन, यहाँ सब उज्ज्वल, जैसे भिक्षु मनका भाव है, 
तुम दिल से आज, छेडो मनकी राग, ये मछवारोंका गांव है।

दिन ढले और आए शाम, चुल्होंसे निकले धुँवे जो, 
बनना है उसे, कोइ बादल, उडे आशमाँ छुनेको
तुम भी उडो, तुम भी दौडो, भिगी धरती लेके पांवमे, 
है जुबां अलग, पर काफी इशारा, ये मछवारोंका गांव है।

इशारेसे हुई सलाम वालेकुम, इशारेसे करेंगे खुदाहाफिस,
लौटोगे तुम पर टुटेगा ना, दिलसे दिलकी ये कशिश।   
नसिबसे हुई ये मुलाकात, मानो नसिबका कोइ दाव है, 
बन्द करके आँख, यहाँ आना फिर, ये मछवारोंका गांव है।    

(बांगला बालक रुबेलपे समर्पित) 

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